Home उत्तर प्रदेश बदलते वक्त के साथ ही अब नहीं सुनाई पड़ रहे ढोलक की थाप पर होली पर्व के लोकगीत

बदलते वक्त के साथ ही अब नहीं सुनाई पड़ रहे ढोलक की थाप पर होली पर्व के लोकगीत

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बदलते वक्त के साथ ही अब नहीं सुनाई पड़ रहे ढोलक की थाप पर होली पर्व के लोकगीत
– नहीं रहा वह अपनापन भरा सौहार्द इसी लिए गायब होती जा रही होली की रंगत भरी रौनक
भास्कर न्यूज एजेंसी : –
रिपोर्टर – जयपालसिंह यादव
कायमगंज / फर्रुखाबाद
होली का त्यौहार हो और खुशी भरा माहौल ना दिखाई दे तो पर्व की रंगत भरी रौनक तो फीकी ही लगने लगती है । होली त्यौहार की उमंग ही कुछ समय पहले हर किसी के मुख मंडल पर अलग ही दिखाई देती थी । आखत की बेला आने का हरकोई बेसब्री से इंतजार करता था । इतना ही नहीं इससे लगभग एक पखवाड़ा पहले से ही प्रत्येक गांव की खास जगह तथा चौपालों पर शाम से ही होली के लोकगीत गाकर होली गायक मस्ती में आ जाते थे । ढोलक की थापों पर ग्रामीण परिवेश में ऊँची एवं बुलंद आवाज के साथ सुरीले अंदाज में होने वाले गायन का ग्रामीण बड़ी संख्या में चौपालों पर एकत्र हो भरपूर आनंद ले आनंदित होते थे । हर रोज शाम ढले सजने वाली होली गीत की महिफिलों में पूरे प्रेम आपसी भाई चारे तथा सौहार्द के वातावरण में लोग भजन कीर्तन की तर्ज पर होली गीत गाने एवं सुनने के लिए एक – दूसरे गांव से भी आते थे । पूरी प्रतिस्पर्धा किन्तु कहीं पर भी किसी तरह का दुर्भाव नहीं होता था । एक टोली निर्गुणी तर्ज पर होली गीत गाकर सामने वाली दूसरी होली गीत गाने वाली टोली से उसका जबाव मांगती थी । इस प्रकार कहीं इतिहास पर तो कहीं रामायण और महाभारत अथवा दूसरे धार्मिक एवं सांस्कृतिक ग्रंथों से उदाहरण के तौर पर सामाजिक सरोकार की प्रेरणा देने वाले होली गीत सुनाकर लोक गीत कला प्रेमी समाज को सुन्दरता के साथ सजग बनाए रखने की अद्भुत कला को जीवंत बनाए रखते थे । अवरत चलता रहा यह मनोरम सिलसिला बदलते बक्त के साथ अब थम सा गया है । अब ना तो कहीं होली गीत की महफिलें सजती हैं । और ना हीं ढोलक आदि पारंपरिक वाद्य यंत्रों की स्फूर्ति देने वाली थापों के साथ मनमोहक अंदाज भरी ध्वनि सुनाई पड़ रही है । पूरी तरह सूनापन ही दिखाई दे रहा है । संभवतः इसका यही कारण है कि बदलते परिवेश में लोग जहां अपनी सांस्कृतिक धरोहर रूपी परंपरा को भुलाते जा रहे हैं । वहीं आपसी प्रेम भाई चारा एवं सौहार्द का ताना बाना भी धीरे – धीरे क्षीण होता जा रहा है । नहीं तो गिरधारीलाल के साथ मियां गफूर चचा जैसे कभी पहले एक साथ होली की महिफिल में एक दूसरे के साथ स्वर मिलाते दिखाई देते रहे आज क्यों नजर नहीं आते । इतना ही नहीं चचा गफूर का बात तो अलग है खुद वे लोग जो होली जैसे उमंग व उल्लास भरे पावन होली के त्यौहार पर एक साथ होने चाहिए , वह भी नजर नहीं आ रहे हैं । ऐशी स्थिति में होली की रंगत फीकी ही पड़ती जा रही है । ईश्वर क्या फिर वह समय जो खुशियों भरा था – उसी उमंग भरे अंदाज में लौटकर आयेगा अथवा नहीं? = “सभी को होली की शुभ कामनाएं “=

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